संकटमोचन महाबली हनुमान जी का सुंदरकांड हिंदी में | Sunderkand in Hindi- PDF

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सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ

 ।। पञ्चम सोपान सुन्दरकाण्ड ।। 

 ॥ आसन ॥ 

कथा प्रारम्भ होत है। सुनहुँ वीर हनुमान ॥
राम लखन जानकी। करहुँ सदा कल्याण ॥

 ॥ श्लोक ॥ 

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥01॥
भावार्थ -
शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की में वंदना करता हूँ ॥(alert-passed) 

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥02॥
भावार्थ -
हे रघुनाथजी। मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ | मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए ॥(alert-passed) 

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥03॥
भावार्थ -
अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी को मैं प्रणाम करता हूँ ॥(alert-passed) 

 ॥ चौपाई ॥ 

जामवंतकेबचन सुहाए ।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई ।
सहि दुख कंदमूलफलखाई ॥
भावार्थ -
जामवंत जी के सुहावने वचन सुनकर हनुमानजी को अपने मन में वे वचन बहुत अच्छे लगे॥ और हनुमानजी ने कहा की हे भाइयो! आप लोग कन्द, मूल व फल खा, दुःख सह कर मेरी राह देखना॥ (alert-passed) 

जब लगि आवौं सीतहिदेखी ।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा ।
चलेउहरषि हियँ धरिरघुनाथा ॥
भावार्थ -
जबतक मै सीताजीको देखकर लौट न आऊँ, क्योंकि कार्य सिद्ध होने पर मन को बड़ा हर्ष होगा॥ ऐसे कह, सबको नमस्कार करके, रामचन्द्रजी का ह्रदय में ध्यान धरकर, प्रसन्न होकर हनुमानजी लंका जाने के लिए चले॥(alert-passed) 

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर ।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार-बार रघुबीरसँभारी ।
तरकेउ पवनतनय बलभारी ॥
भावार्थ -
समुद्र के तीर पर एक सुन्दर पहाड़ था। उसपर कूदकर हनुमानजी कौतुकी से चढ़ गए॥ फिर वारंवार रामचन्द्रजी का स्मरण करके, बड़े पराक्रम के साथ हनुमानजी ने गर्जना की॥(alert-passed) 

जेहिं गिरि चरन देइहनुमंता ।
चलेउ सो गापाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना ।
एहीभाँति चलेउ हनुमाना ॥
भावार्थ -
कहते हैं जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखकर ऊपर छलांग लगाई थी, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया॥ जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, ऐसे हनुमानजी वहा से चले॥(alert-passed) 

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी ।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी ॥
भावार्थ -
समुद्र ने हनुमानजी को श्रीराम (रघुनाथ) का दूत जानकर मैनाक नाम पर्वत से कहा की हे मैनाक, तू जा, और इनको ठहरा कर श्रम मिटानेवाला हो॥(alert-passed) 

मैनाक पर्वत की हनुमान जी से विनती

 ॥ सोरठा ॥ 

सिन्धुवचन सुनी कान, तुरत उठेउ मैनाक तब ।
कपिकहँ कीन्ह प्रणाम, बार बार कर जोरिकै ॥
भावार्थ -
समुद्र के वचन कानो में पड़ते ही मैनाक पर्वत वहां से तुरंत उठा और हनुमान जी के पास आकर वारंवार हाथ जोड़कर उसने हनुमान जी को प्रणाम किया॥(alert-passed) 

 ॥ दोहा- 1 ॥ 

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥01॥
भावार्थ -
हनुमान जी ने उसको अपने हाथसे छूकर फिर उसको प्रणाम किया, और कहा की, रामचन्द्र जी का का कार्य किये बिना मुझको विश्राम कहा है? ॥01॥(alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

हनुमान जी की सुरसा से भेंट

 ॥ चौपाई ॥ 

जातपवनसुत देवन्ह देखा ।
जानैं कहुँबलबुद्धि बिसेषा ॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता ।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥
भावार्थ -
हनुमानजी को जाते देखकर उसके बल और बुद्धि के वैभव कोजानने के लिए देवताओं ने नाग माता सुरसा को भेजा। उस नागमाताने आकर हनुमानजी से यह बात कही॥ (alert-passed) 

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा ।
सुनत बचन कहपवनकुमारा ॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं ।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥
भावार्थ -
आज तो मुझको देवताओं ने यह अच्छा आहार दिया। यह बात सुन हँस कर, हनुमानजी बोले॥ मैं रामचन्द्रजी का काम करके लौट आऊ और सीताजी की खबर रामचन्द्रजी को सुना दूं॥ (alert-passed) 

तब तव बदन पैठिहउँ आई ।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना ।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥
भावार्थ -
फिर हे माता! मै आकर आपके मुँह में प्रवेश करूंगा। अभी तू मुझे जाने दे। इसमें कुछभी फर्क नहीं पड़ेगा। मै तुझे सत्य कहता हूँ॥ जब उसने किसी उपायसे उनको जाने नहीं दिया, तब हनुमानजीने कहा कि तू क्यों देरी करती है? तू मुझको नही खा सकती॥(alert-passed) 

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा ।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥
भावार्थ -
सुरसाने अपना मुंह एक योजनभरमें फैलाया। हनुमानजी ने अपना शरीर दो योजन विस्तारवाला किया॥ सुरसा ने अपना मुँह सोलह (१६) योजनमें फैलाया। हनुमानजीने अपना शरीर तुरंत बत्तीस (३२) योजन बड़ा किया॥ (alert-passed) 

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा ।
तासु दून कपि रूप देखावा ॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा ।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥
भावार्थ -
सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजीने वैसेही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया॥ जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर॥ (alert-passed) 

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा ।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा ।
बुधि बल मरमु तोर मै पावा ॥
भावार्थ -
सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजीने वैसेही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया॥ जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर॥ (alert-passed) 

 ॥ दोहा- 2 ॥ 

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥02॥
भावार्थ -
तुम बल और बुद्धि के भण्डार हो, सो श्रीरामचंद्रजी के सब कार्य सिद्ध करोगे। ऐसे आशीर्वाद देकर सुरसा तो अपने घर को चली, और हनुमानजी प्रसन्न होकर लंकाकी ओर चले ॥2॥(alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

हनुमान जी की छाया पकड़ने वाले राक्षस से भेंट

 ॥ चौपाई ॥ 

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ।
करि माया नभु के खग गहई ॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं ।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥
भावार्थ -
समुद्र के अन्दर एक राक्षस रहता था। सो वह माया करके आकाशचारी पक्षी और जंतुओको पकड़ लिया करता था॥ जो जीवजन्तु आकाश में उड़कर जाता, उसकी परछाई जल में देखकर, परछाई को जल में पकड़ लेता॥ (alert-passed) 

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई ।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा ।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥
भावार्थ -
परछाई को जल में पकड़ लेता, जिससे वह जिव जंतु फिर वहा से सरक नहीं सकता। इसतरह वह हमेशा आकाशचारी जिवजन्तुओ को खाया करता था॥ उसने वही कपट हनुमानसे किया। हनुमान ने उसका वह छल तुरंत पहचान लिया॥ (alert-passed) 

ताहि मारि मारुतसुत बीरा ।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा ।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥
भावार्थ -
धीर बुद्धिवाले पवनपुत्र वीर हनुमानजी उसे मारकर समुद्र के पार उतर गए॥ वहा जाकर हनुमानजी वन की शोभा देखते है कि भ्रमर मकरंद के लोभसे गुँजाहट कर रहे है॥(alert-passed) 

हनुमानजी लंका पहुंचे


नाना तरु फल फूल सुहाए ।
खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥
सैल बिसाल देखि एक आगें ।
ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ॥
भावार्थ -
अनेक प्रकार के वृक्ष फल और फूलोसे शोभायमान हो रहे है। पक्षी और हिरणोंका झुंड देखकर मन मोहित हुआ जाता है॥ वहा सामने हनुमान एक बड़ा विशाल पर्वत देखकर निर्भय होकर उस पहाड़पर कूदकर चढ़ बैठे॥ (alert-passed) 

उमा न कछु कपि कै अधिकाई ।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी ।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥
भावार्थ -
महदेव जी कहते है कि हे पार्वती! इसमें हनुमान की कुछ भी अधिकता नहीं है। यह तो केवल एक रामचन्द्रजीके ही प्रताप का प्रभाव है कि जो कालकोभी खा जाता है॥ पर्वत पर चढ़कर हनुमानजी ने लंका को देखा, तो वह ऐसी बड़ी दुर्गम है की जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता॥ (alert-passed) 

अति उतंग जलनिधि चहु पासा ।
कनक कोट कर परम प्रकासा ॥
भावार्थ -
पहले तो वह पुरी बहुत ऊँची, फिर उसके चारो ओर समुद्र की खाई। उसपर भी सुवर्णके कोटका महाप्रकाश कि जिससे नेत्र चकाचौंधहो जावे॥ (alert-passed) 

लंका का वर्णन

 ॥ छंद- 1 ॥ 

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै ।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥01॥
भावार्थ -
उस नगरीका रत्नों से जड़ा हुआ सुवर्ण का कोट अतिव सुन्दर बना हुआ है। चौहटे, दुकाने व सुन्दर गलियों के बहार उस सुन्दर नगरीके अन्दर बनी है॥ जहा हाथी, घोड़े, खच्चर, पैदल व रथोकी गिनती कोई नहीं कर सकता। और जहा महाबली अद्भुत रूपवाले राक्षसोके सेनाके झुंड इतने है की जिसका वर्णन किया नहीं जा सकता॥ (alert-passed) 
 ॥ छंद- 2 ॥ 

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥02॥
भावार्थ -
जहा वन, बाग़, बागीचे, बावडिया, तालाब, कुएँ, बावलिया शोभायमान हो रही है। जहां मनुष्यकन्या, नागकन्या, देवकन्या और गन्धर्वकन्याये विराजमान हो रही है जिनका रूप देखकर मुनिलोगोका मन मोहित हुआ जाता है॥
कही पर्वत के समान बड़े विशाल देहवाले महाबलिष्ट मल्ल गर्जनाकरते है और अनेक अखाड़ों में अनेक प्रकारसे भिड रहे है और एक एकको आपस में पटक पटक कर गर्जना कर रहे है॥(alert-passed) 
 ॥ छंद- 3 ॥ 

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही ।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥03॥
भावार्थ -
जहा कही विकट शरीर वाले करोडो भट चारो तरफसे नगरकी रक्षा करते है और कही वे राक्षस लोग भैंसे, मनुष्य, गौ, गधे, बकरे और पक्षीयोंको खा रहे है॥
राक्षस लोगो का आचरण बहुत बुरा है। इसीलिए तुलसीदासजी कहते है कि मैंने इनकी कथा बहुत संक्षेपसे कही है। ये महादुष्ट है, परन्तु रामचन्द्रजीके बानरूप पवित्र तीर्थनदीके अन्दर अपनाशरीर त्यागकर गति अर्थात मोक्षको प्राप्त होंगे॥(alert-passed) 
 ॥ दोहा- 3 ॥ 

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥03॥
भावार्थ -
हनुमानजी ने बहुत से रखवालो को देखकर मनमेंविचार किया की मैछोटारूपधारणकरके नगर में प्रवेश करूँ ॥3॥ (alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

 ॥ चौपाई ॥ 

मसक समान रूप कपि धरी ।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी ।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥
भावार्थ -
हनुमानजी मच्छर के समान, छोटा-सा रूप धारण कर, प्रभु श्री रामचन्द्रजी के नाम का सुमिरन करते हुए लंका में प्रवेश करते है॥ लंका के द्वार पर हनुमानजी की भेंट लंकिनी नाम की एक राक्षसी से होती है॥ वह पूछती है कि मेरा निरादर करके कहा जा रहे हो? (alert-passed)

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा ।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी ।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ॥
भावार्थ -
तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहाँ तक चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमानजी उसे एक घूँसा मारते है, जिससे वह पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ती है। (alert-passed) 

पुनि संभारि उठि सो लंका ।
जोरि पानि कर बिनय संसका ॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा ।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥
भावार्थ -
वह राक्षसी लंकिनी अपने को सँभालकर फिर उठती है। और डर के मारे हाथ जोड़कर हनुमानजी से कहती है॥ जब ब्रह्मा ने रावण को वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने राक्षसों के विनाश की यह पहचान मुझे बता दी थी कि॥(alert-passed) 

बिकल होसि तैं कपि कें मारे ।
तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
तात मोर अति पुन्य बहूता ।
देखेउँ नयन राम कर दूता ॥
भावार्थ -
जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामजी के दूत को अपनी आँखों से देख पाई। (alert-passed) 
 ॥ दोहा- 4 ॥ 

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥04॥
भावार्थ -
हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है ॥04॥ (alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

हनुमानजी का लंका में प्रवेश

 ॥ चौपाई ॥ 

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा ।
हृदयँ राखि कौसलपुर राजा ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई ।
गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥
भावार्थ -
अयोध्यापुरी के राजा रघुनाथ को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है।(alert-passed)

गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही ।
राम कृपा करि चितवा जाही ॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना ।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥
भावार्थ -
और हे गरुड़! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे राम ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।(alert-passed)

सीताजी की खोज


मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा ।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं ।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥
भावार्थ -
उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्ययोद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। (alert-passed)

सयन किए देखा कपि तेही ।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा ।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥
भावार्थ -
हनुमानजी ने महल में रावण को सोया हुआ देखा। वहा भी हनुमानजी ने सीताजी की खोज की, परन्तु सीताजी उस महल मेंकही भी दिखाई नहीं दीं। फिर उन्हें एक सुंदर भवन दिखाई दिया। उस महल में भगवान का एक मंदिर बना हुआ था।(alert-passed)
 ॥ दोहा- 5 ॥ 

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ ॥05॥
भावार्थ -
वह महल राम के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज हनुमान हर्षित हुए ॥5॥ (alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

हनुमान जी की विभीषण से भेंट

 ॥ चौपाई ॥ 

लंका निसिचर निकर निवासा ।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
मन महुँ तरक करै कपि लागा ।
तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥
भावार्थ -
और उन्हीने सोचा की यह लंका नगरी तो राक्षसोंके कुलकी निवासभूमी है। यहाँ सत्पुरुषो के रहने का क्या काम॥ इस तरह हनुमानजी मन ही मन में विचार करने लगे। इतने में विभीषण की आँख खुली॥(alert-passed)

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा ।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी ।
साधु ते होइ न कारज हानी ॥
भावार्थ -
और जागते ही उन्होंने ‘राम! राम!’ ऐसा स्मरण किया, तो हनुमानजीने जाना की यह कोई सत्पुरुष है। इस बात से हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ॥ हनुमानजीने विचार किया कि इनसे जरूर पहचान करनी चहिये, क्योंकि सत्पुरुषोके हाथ कभीकार्यकी हानि नहीं होती॥(alert-passed)

बिप्र रुप धरि बचन सुनाए ।
सुनत बिभीषण उठि तहँ आए ॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई ।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥
भावार्थ -
फिर हनुमानजीने ब्राम्हणका रूप धरकर वचन सुनाया तो वहवचन सुनतेही विभीषण उठकर उनके पास आया॥ और प्रणाम करके कुशल पूँछा, की हे विप्र (ब्राह्मणदेव)! जो आपकी बात होसो हमें समझाकर कहो॥(alert-passed)

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई ।
मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी ।
आयहु मोहि करन बड़भागी ॥
भावार्थ -
विभीषणने कहा कि शायद आप कोई भगवन्तोमेंसे तो नहीं हो! क्योंकि मेरे मनमें आपकी ओर बहुत प्रीती बढती जाती है॥ अथवा मुझको बडभागी करने के वास्ते भक्तोपर अनुराग रखनेवाले आप साक्षात दिनबन्धु ही तो नहीं पधार गए हो॥(alert-passed)
 ॥ दोहा- 6 ॥ 

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥06॥
भावार्थ -
विभिषण के ये वचन सुनकर हनुमान जी ने रामचन्द्रजी की सब कथा विभीषण से कही और अपना नाम बताया। परस्पर की बाते सुनते ही दोनों के शरीर रोमांचित हो गए और श्री रामचन्द्रजी का स्मरण आ जाने से दोनों आनंदमग्न हो गए ॥6॥ (alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

हनुमान जी और विभीषण का संवाद

 ॥ चौपाई ॥ 

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी ।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा ।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥
भावार्थ -
विभीषण कहते है की हे हनुमानजी! हमारी रहनी हम कहते है सो सुनो। जैसे दांतों के बिचमें बिचारी जीभ रहती है, ऐसे हम इनराक्षसोंके बिच में रहते है॥ हे प्यारे! वे सूर्यकुल के नाथ (रघुनाथ) मुझको अनाथ जानकरकभी कृपा करेंगे?(alert-passed)

तामस तनु कछु साधन नाहीं ।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता ।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥
भावार्थ -
जिससे प्रभु कृपा करे ऐसा साधन तो मेरे है नहीं। क्योंकि मेराशरीर तो तमोगुणी राक्षस है, और न कोई प्रभुके चरणकमलों में मेरे मनकी प्रीति है॥ परन्तु हे हनुमानजी, अब मुझको इस बातका पक्का भरोसा हो गया है कि भगवान मुझपर अवश्य कृपा करेंगे। क्योंकि भगवानकी कृपा बिना सत्पुरुषोंका मिलाप नहीं होता॥(alert-passed)

जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा ।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती ।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥
भावार्थ -
रामचन्द्रजी ने मुझपर कृपा की है। इसीसे आपने आकर मुझको दर्शन दिए है॥ विभीषणके यह वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि हे विभीषण! सुनो, प्रभुकी यह रीतीही है की वे सेवकपर सदा परमप्रीति किया करते है॥(alert-passed)

कहहु कवन मैं परम कुलीना ।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा ।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥
भावार्थ -
हनुमानजी कहते है की कहो मै कौनसा कुलीन पुरुष हूँ। हमारी जाति देखो (चंचल वानर की), जो महाचंचल और सब प्रकारसे हीन गिनी जाती है॥ जो कोई पुरुष प्रातःकाल हमारा (बंदरों का) नाम ले लेवे, तो उसे उस दिन खाने को भोजन नहीं मिलता॥(alert-passed)
 ॥ दोहा- 7 ॥ 

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥07॥
भावार्थ -
रामचन्द्रजी ने मुझपर कृपा की है। इसीसे आपने आकर मुझको दर्शन दिए है॥ विभीषण के यह वचन सुनकर हनुमानजी ने कहा कि हे विभीषण! सुनो, प्रभुकी यह रीतीही है की वे सेवक पर सदा परमप्रीति किया करते है॥ ॥7॥ (alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

भगवान् को भूलने पर, इंसान के जीवन में दुःख का आना

 ॥ चौपाई ॥ 

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
भावार्थ -
जो मनुष्य जानते बुझते ऐसे स्वामी को छोड़ बैठते है, वे दूखी क्यों न होंगे?
इस तरह रामचन्द्रजीके परम पवित्र व कानों को सुख देने वाले गुण समूहों को कहते कहते, हनुमानजी ने विश्राम पाया, उन्होने परम (अनिर्वचनीय) शांति प्राप्त की ॥(alert-passed)

पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता॥
भावार्थ -
फिर विभीषण ने हनुमानजी से वह सब कथा कही कि – सीताजी जिस जगह, जिस तरह रहती थी। तब हनुमानजी ने विभीषण से कहा, हे भाई सुनो, मैं सीता माता को देखना चाहता हूँ॥ ॥(alert-passed)

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥
भावार्थ -
सो मुझे उपाय बताओ। हनुमानजी के यह वचन सुनकर विभीषण ने वहां की सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनाई। तब हनुमानजी भी विभीषण से विदा लेकर वहां से चले॥ फिर वैसा ही छोटा सा स्वरुप धर कर, हनुमानजी वहां गए, जहां अशोक वन में सीताजी रहा करती थी॥ ॥(alert-passed)

हनुमानजी ने अशोकवन में सीताजी को देखा


देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥
भावार्थ -
हनुमानजी ने सीताजी का दर्शन करके, उनको मनही मनमें प्रणाम किया और बैठे। इतने में एक प्रहर रात्रि बीत गयी॥ हनुमानजी सीताजी को देखते है, सो उनका शरीर तो बहुत दुबला हो रहा है। सर पर लटोकी एक वेणी बंधी हुई है। और अपने मनमें श्री राम के गुणों का जाप (स्मरण) कर रही है॥ ॥(alert-passed)
 ॥ दोहा- 8 ॥ 

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥8॥
भावार्थ -
और अपने पैरो में दृष्टि लगा रखी है। मन रामचन्द्रजी के चरणों में लीन हो रहा है। सीताजी की यह दीन दशा (दुःख) देखकर, हनुमानज ीको बड़ा दुःख हुआ ॥8॥ (alert-passed) 

॥ जय सियाराम जय जय सियाराम ॥


अशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद

 ॥ चौपाई ॥ 

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा॥
भावार्थ -
हनुमानजी वृक्षों के पत्तो की ओट में छिपे हुए, मनमें विचार करने लगे कि हे भाई अब मै क्या करू? इनका दुःख कैसे दूर करूँ?॥ उसी समय बहुत सी स्त्रियों को संग लिए रावण वहाँ आया। जो स्त्रिया रावण के संग थी, वे बहुत प्रकार के गहनों से बनी ठनी थी॥ ॥(alert-passed)

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥
भावार्थ -
उस दुष्टने सीताजी को अनेक प्रकार से समझाया। साम, दाम, भय और भेद अनेक प्रकारसे दिखाया॥ रावणने सीतासे कहा कि हे सुमुखी! जो तू एकबार भी मेरी तरफ देख ले तो हे सयानी, मंदोदरी आदि सब रानियो को॥ ॥(alert-passed)

सुंदरकांड के बारे में

हनुमान चालीसा 16 वीं शताब्दी में संत तुलसीदास जी द्वारा लिखा गया एक लोकप्रिय मंत्र है, जो भगवान हनुमान को उनके साहस, शक्ति, ज्ञान और भगवान राम के प्रति समर्पण के लिए स्तुति करता है। जैसा कि नाम से पता चलता है कि 'हनुमान चालीसा' 40 काव्य छंदों से युक्त एक भजन है और यह अनंत सकारात्मक शक्ति, ज्ञान और बुराई के विनाशक भगवान हनुमान की स्तुति और आह्वान करने के लिए है। 

हनुमान चालीसा आपको अपने डर को दूर करने में मदद करती है, बुराई को दूर रखती है, सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको जीवन में बाधाओं को दूर करने के लिए आवश्यक आंतरिक शक्ति और शक्ति प्रदान करती है। हर सुबह या जब भी आप कम ऊर्जा या डर महसूस करते हैं तो हनुमान चालीसा का पाठ करने की सलाह दी जाती है। 

हर शनिवार को हनुमान मंदिर में जाकर हनुमान चालीसा का पाठ करना और बरगद के पत्ते की माला और तिल के तेल को काली दाल (काली उड़द की दाल) और सिंदूर (सिंदूर) के साथ मिलाकर भगवान हनुमान का आह्वान करना और परमात्मा का आशीर्वाद प्राप्त करना सबसे अच्छा है।

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